Wednesday, December 4, 2024

शिव और आधुनिक अर्थशास्त्र की प्रासंगिकता, जानिए शिव से कैसे लें…

<p style="text-align: justify;">सनातन धर्म के चार पुरुषार्थ एवं आधार स्तंभ- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष बताए गए हैं. शिव पुराण विद्योशवर संहिता 25.68 (उसके दर्शन और स्पर्श से शीघ्र ही धर्म, अर्थ, काम मोक्ष-इन चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति होती है) में. चालिए आज इस लेख के जरिए जानते हैं कि भगवान शिव से कैसे अर्थशास्त्र का ज्ञान लें?</p>
<p style="text-align: justify;">शिव उपासना अंक (पृष्ठ संख्या 149) अनुसार शिव एक अलौकिक तत्व हैं तथा दूसरी तरफ अर्थशास्त्र आधुनिक रूप में एक नवीन, लौकिक तथा पाश्चात्त्य विद्या है. लेकिन यह अलग होते हुए भी इन दोनों में एक समानता है. शिव का अर्थ है कल्याण करने वाला है और अर्थशास्त्र के मायने है मानव समाज को भौतिक सुख प्रदान करने का प्रयास करना. हमें यह विचार करना है कि शिव जी के जीवन तथा विचारों में ऐसी कौन-सी बातें हैं जिनसे जनता का हित हुआ हो जैसा कि अर्थशास्त्र से होता है या होना चाहिए. विषय विस्तृत है, इसलिए हमें कुछ&nbsp; उदाहरणों से ही संतुष्ट होना होगा.</p>
<p style="text-align: justify;"><strong>हमारी जरूरतों के लिए धन का उपयोग (Use of Money for Needs)</strong></p>
<p style="text-align: justify;">धन या अर्थ सम्बन्धी विविध प्रकार की क्रियाएं इसलिये होती हैं कि मनुष्य को बहुत सी चीजों की जीवन-निर्वाह या उपभोग के लिए या अपनी सीमाओं की वृद्धि के लिए जरूरत होती है. अर्थशास्त्र का अर्थ ही है &ldquo;मानव की आवश्यकताएं&rdquo; और उनको पूरा करने का साधन. नित्य नई आवश्यकताओं की वृद्धि करते रहने और फिर उनकी पूर्ति के प्रयत्न करने में आर्थिक प्रगति का मार्ग है. परंतु इस प्रगति से समाज को अर्थशास्त्र का अभीष्ट सुख कहां तक प्राप्त होता है, यह एक पेच हैं. सब तरफ असंतोष बढ़ता जा रहा है. धन जितना भी बढ़ता है, उससे कहीं अधिक हमारी आवश्यकताएं बढ़ जाने के कारण असन्तोष की मात्रा भी बढ़ती जा रही है.</p>
<p style="text-align: justify;">इसके विपरीत भगवान शिव का आदर्श है अपनी आवश्यकताएं कम से कम रखना, प्राकृतिक संसाधनों का भरपूर उपयोग करना अपनी धन-सम्पत्ति दूसरों के उपभोग हेतु वितरण कर देना, थोड़े में ही संतोष करना, ऐश्वर्य और वैभव का त्याग. ऐसे आदर्शयुक्त व्यक्ति आजकल असभ्य और जंगली कहा जायेगा, तो क्या हम अपना जीवन दूसरों को दिखाने के लिए जी रहे हैं. हम क्यों आशुतोष का पूजन करते हुए कुछ अंश में ‘आशुतोष’ बनने का प्रयत्न क्यों नही करते? क्या हम छप्पन भोग खाकर, महीन कपड़े पहनकर ही सभ्य कहलाएंगे. भगवान शिव ने गंगा माता का भार अपने मस्तक पर धारण करके बतला दिया कि सादगी और तप का जीवन बिताने वाले ही कठिनाइयों को पार कर सकते हैं, भोग- विलास में फंसे हुए कुछ नहीं कर पाते.</p>
<p style="text-align: justify;"><strong>धन का उपार्जन (Earning money)</strong></p>
<p style="text-align: justify;">हमें तय करना है कि हम अपनी बढ़ती आवश्यकताएं कितने हद तक ले जाएं. जब तक हमारी आवश्यकताएं सीमित नही होंगी और बढ़ती रहेंगी, हमें उनको पूरा करने के लिए लगे रहना होगा, जो हमें कभी सुखी नहीं रहने देगी. लेकिन इसके&nbsp;विपरीत हम भगवान शिव के रहन-सहन से थोड़ी-सी शिक्षा लेकर अपने भोजन-वस्त्रादि की आवश्यकताओं को घटा कर रखने का प्रयत्न करेंगे, तो उनकी पूर्ति बहुत कुछ तो प्रकृतिजन्य वस्तुओं से हो सकती है और जो थोड़ी-सी कमी रहेगी, वह सहज ही थोड़े-से समय में हमारे प्रयत्न से पूरी हो सकती है.</p>
<p style="text-align: justify;">इस तरह हमारे जीवन का शेष समय विविध प्रकार के ज्ञान-विज्ञान के उपार्जन और नैतिक तथा आध्यात्मिक विषयोंके चिन्तन और मनन में लग सकता है. आजकल धनी और विकसित देशों में कुछ व्यक्तियों को छोड़कर बाकी सब जीवन यापन की आपाधापी में ग्रस्त हैं. इस रोग का निवारण करने में आधुनिक सभ्यता नितान्त पीछे है, इस सम्बन्ध में शिव जी अपने उदाहरण से शिक्षा दे रहे हैं. ऊंचे और शान्तिमय विचारों के लिए सादगी का जीवन आवश्यक है.</p>
<p style="text-align: justify;">भौतिकवाद से दूर होंगे तब धन उपार्जन सम्बन्धी विचारों में एक व्यापक क्रान्ति होगी. इस समय शराब, धूम्रपान, नशीले पदार्थ और आतिशबाजी का सामान आदि प्रत्येक ऐसी वस्तु का बनाना ‘धनोत्पत्ति’ का काम कहा जाता है, जिसका विनिमय होता हो, जिसे मनुष्य सेवन करते हों, चाहे उसके ‘उपभोग’ से उनको कुछ भी लाभ न होकर उन्हें कुछ शारीरिक, मानसिक या नैतिक हानि ही क्यों न हो. क्या ऐसा समय आएगा जब केवल शिव या कल्याण करने वाली वस्तुओं का निर्माण ही ‘धनोत्पत्ति’ कहा जायगा ?</p>
<p style="text-align: justify;"><strong>व्यापार विनिमय (Trade Exchange)</strong></p>
<p style="text-align: justify;">आज रिश्वत को हक की तरह लिया जाता है. दूसरों से छल-कपट, झूठा व्यवहार करने में गौरव अनुभव करते हैं. दूसरों का धन छीन लेने में हम अपनी स्वयं को बुद्धिमान समझते हैं. हम चाहते हैं कि सबका धन हमारे पास आ जाये. संग्रह करते रहने पर भी हमारी तृप्ति नहीं होती. भगवान शिव की भांति हम त्याग के सुख कैसे प्राप्त करेंगे? अपना सबकुछ औरों को देकर, हम कब आनन्दित होंगे?</p>
<p style="text-align: justify;">जब तक ऐसा न होगा कोई देश आन्तरिक शान्ति नहीं पायेगा और अन्ताराष्ट्रिय व्यापार सदैव कलह का कारण होगा, चाहे व्यापारिक संधियां और समझौते कितने ही क्यों न हो जाएं. हमें दूसरों के हित में अपना हित समझना चाहिए. इस प्रकार शराब, अफीम, शौकीनी के सामान बेचना तथा दूसरों के व्यवसाय-धंधे नष्ट करके जबरदस्ती अपना कोई भी माल बाहर भेजना और वहां उसकी मांग बढ़ाना सब अनीतिपूर्ण व्यापार है. शिव के अनुयायियों को चाहिए कि जहां स्वयं स्वावलम्बी हों, वहां दूसरों को भी व्यापारिक दासता में फंसाने वाले न बनें.</p>
<p style="text-align: justify;">इस प्रकार अर्थशास्त्र के अन्य विषयों पर विचार किया जा सकता है. भगवान शिव की पूजा का अभिप्राय इस तत्त्व को ग्रहण करना होना चाहिए कि जिस अर्थशास्त्र के सिद्धान्त वास्तव में हमारे एवं दूसरों के लिये कल्याणकारी न हों, उसे अर्थशास्त्र ही न समझा जाये. इसके लिए आवश्यक है कि हम इन्द्रियों के दास न होकर भगवान शिव की भांति संयमी जीवन व्यतीत करने वाले हों और हम समाज-शास्त्र के इस अंग पर केवल बाहरी दृष्टि से न देखकर तीसरे नेत्र (विवेक-बुद्धि) से देखने वाले हों. उसी से हम ‘काम’ (जैसे भगवान शिव ने काम देव को भस्म किया था) पर विजय पा सकते हैं और अपने-आपको एवं दूसरों को सच्चा सुख प्रदान कर सकते हैं.</p>
<p style="text-align: justify;"><strong>ये भी पढ़ें: <a href="https://www.abplive.com/lifestyle/religion/shri-krishna-broke-pride-of-arjuna-and-hanuman-know-mythological-story-of-dwapar-yug-2601356">भगवान कृष्ण ने एक साथ किया अर्जुन और हनुमान जी का अभिमान भंग, जानिए कैसे</a></strong></p>
<p style="text-align: justify;"><strong>नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.</strong></p>Source link

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