पितृपक्ष के बारे में आप कितना जानते हैं? क्या आप जितना जानते हैं, पितृपक्ष का अर्थ केवल उतना ही है. या फिर कुछ शेष बच जाता है. आपको बता दें कि, जन्म और मृत्यु का रहस्य जिस तरह से अत्यंत गूढ़ है, ठीक उसी प्रकार से पितृ भी हैं.
वेद, दर्शन शास्त्र, उपनिषद और पुराण आदि में हमारे ऋषियों-मनीषियों द्वारा जीवन और मृत्यु के अत्यंत गूढ़ रहस्यों पर विस्तृत चर्चा की गई है. श्रीमद्भागवत गीता में बताया गया है कि, जो जन्म लेता है उसकी मृत्यु और मृत्यु को प्राप्त होने वाले का जन्म निश्चित है और यही प्रकृति का नियम है. लेकिन इसमें यह भी बताया गया है कि, मृत्यु के बाद शरीर नष्ट हो जाता है लेकिन आत्मा कभी नष्ट नहीं होती, वह पुन: जन्म लेती है और बार-बार जन्म लेती है. इस पुन: जन्म के आधार पर ही कर्मकाण्ड में श्राद्धादि कर्म का विधान बनाया गया है.
लेकिन अधिकांश लोगों में यह संदेह रहता है कि, पूर्वजों के निमित्त दी गई वस्तुएं सचमुच उन्हें प्राप्त होती हैं या नहीं. हमारे द्वारा दिए पदार्थ उन तक कैसे पहुंचते हैं? क्या ब्राह्मण को भोजन कराने से पूर्वजों का पेट भर जाता है? न जाने इस तरह के कितने ही सवाल लोगों के मन में उठते हैं, जिनका सीधे तौर पर उत्तर देना शायद संभव भी नहीं है. क्योंकि कुछ मापदण्डों को इस सृष्टि की प्रत्येक विषयवस्तु पर लागू नहीं किया जा सकता. ऐसी कई बातें हैं, जिनका कोई प्रमाण न मिलते हुए भी उन पर विश्वास करना पड़ता है. लेकिन वेद-पुराण, धर्म शास्त्र से लेकर पितृपक्ष में होने वाली विधि आदि से वैज्ञानिक मान्यताएं भी जुड़ी हुई हैं, जिसके बारे में हम सभी को जरूर जानना चाहिए.
श्राद्धपक्ष या पितृपक्ष की शुरुआत 29 सितंबर 2023 से हो चुकी है और यह 14 अक्टूबर तक चलेगा. पितृपक्ष में लोग अपने पितृगणों को प्रसन्न करने, उन्हें मोक्ष दिलाने, ऋण से मुक्ति दिलाने और आशीर्वाद पाने के लिए शास्त्रों में बताए गए धर्म स्थानों पर जाकर विधिपूर्वक श्राद्ध, तर्पण और पिंडदान कर रहे हैं. वहीं कुछ लोग घर पर या घर के समीम नदी या सरोवर में ही श्राद्ध, तर्पण, पिंडदान और ब्राह्मण भोजन सहित कई अन्य विधियां कर रहे हैं. लेकिन इन नियमों को करने से पहले आपको यह जरूर पता होना चाहिए कि आखिर पितृगण कौन हैं और ये अस्तित्व में कैसे आएं.
पितरों का परिचय
हम सभी जानते हैं कि, पितृपक्ष में पितरों की आत्मा की शांति के लिए श्राद्ध, तर्पण और पिंडदान किए जाते हैं. लेकिन इससे पहले यह जानते हैं कि, पितर कौन हैं? पितरों को लेकर जनमानस के बीच साधारण धारणा यही है कि, जिनकी मृत्यु हो जाती है वह पितर बन जाते हैं. गरुड़ पुराण में ऐसा बताया गया है कि, मृत्यु के बाद यमलोक पहुंचने के बाद प्रेत आत्मा को कर्मों के अनुसार प्रेत योनि या अन्य योनि प्राप्त होती है. तो वहीं पुण्य कर्म अर्जित कर देवलोग पहुंचने वाली कुछ आत्माओं को पितृलोक मिलता है,
पुराण के अनुसार, पितरों को मुख्यत: दो श्रेणियों में रखा गया है, जिसमें दिव्य पितर और मनुष्य पितर शामिल हैं. दिव्य पितरों का काम न्याय करना होता है. दिव्य पितर ऐसी जीवधारियों की आत्मा को कहा जाता है, जिन्हें उनके कर्मों के अनुसार मृत्यु के बाद गति प्रदान होती है. इसके प्रधान यमराज हैं. अत: यमराज की गणना भी पितरों में होती है. ऐसे में यमराज, अर्यमा, सोम और काव्यवाडनल ये 4 दिव्य पितरों की जमात के मुख्य गण प्रधान हैं. दिव्य पितरों की जमात में अग्रिष्वात्त, बर्हिषद, आज्यप, सोमेप, रश्मिप, उपदूत, आयन्तुन, श्राद्धभुक और नांदीमुख जैसे 9 दिव्य पितर हैं.
गीता के इस श्लोक का अर्थ है- हे धनंजय! नागों में मैं शेषनाग और जलचरों में वरुण हूं. पितरों में अर्यमा और नियमन करने वालों में यमराज हूं.
अर्यमा पितरों में श्रेष्ठ और पितरों के देव हैं. ये महर्षि कश्यप की पत्नी देवमाता अदिति के पुत्र हैं और इंद्रादि देवताओं के भाई. आश्विन माह के कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक ऊपर की किरण (अर्यमा) के साथ पितृ प्राण पृथ्वी पर व्याप्त रहता है. पुराण के अनुसार, उत्तरा-फाल्गुनी नक्षत्र में अर्यमा का निवास लोक है और इनकी गणना नित्य पितरों में की जाती है. श्राद्ध के समय इनके नाम का जलदान किया जाता है, क्योंकि इसने प्रसन्न होने पर पितर तृप्त होते हैं.
विष्णु पुराण के अनुसार, सृष्टि की रचना के समय ब्रह्मा जी के पीठ से पितर उत्पन्न हुए. पितर के उत्पन्न होने के बाद उन्होंने उस शरीर का त्याग कर दिया, जिससे कि पितर को जन्म देने वाला शरीर संध्या बन गया. इसलिए कहा जाता है कि, संध्या काल में पितर बहुत अधिक शक्तिशाली होते हैं.
क्यों जरूरी है श्राद्ध और श्राद्ध नहीं किया तो क्या होगा?
कहा जाता है कि, मृत्यु के बाद अतृप्त पूर्वज तीन कारणों से धरतीलोक पर आते हैं. वह आकर यह देखते हैं कि हमारी संतान या हमारे वंश कैसे हैं, दूसरा कारण यह है कि पितृ देखते हैं कि, क्या हमें अन्न-जल प्राप्त होगा और तीसरा कारण यह है कि पितृ देखते हैं कि हमारी मुक्ति के कोई कर्म किया जा रहा है या नहीं. भूख भले ही भौतिक शरीर को होती है. लेकिन इसकी अनुभूति से मृतक अतृप्ति महसूस करते हैं.
गीता विज्ञान में इसे लेकर बताया गया है कि, अन्न (पितरों के अन्न को सोम कहा जाता है) से शरीर तृप्त होता है. अग्नि को दान किए गए अन्न से सूक्ष्म शरीर यानी अत्मा का शरीर और मन तृप्त होता है. इस अग्निहोत्री से आकाश मंडल के समस्त पक्षी भी तृप्त होते हैं. तर्पण, पिंडदान और धूप देने से आत्मा की तृप्ति होती है और तृप्त आत्माओं को प्रेत बनकर भटकना नहीं पड़ता है.
वेदों में पितरों की स्तुति के लिए कहा गया है-
।।ऊँ अर्यमा न त्रिप्य्ताम इदं तिलोदकं तस्मै स्वधा नम:।..ऊँ मृत्योर्मा अमृतं गमय।।
अर्थ है: पितरों में श्रेष्ठ अर्यमा पितरों के देव हैं. अर्यमा को प्रणाम. हे! पिता, पितामह और प्रपितामह. हे! माता, मातामह और प्रमामामह आपको बारम्बार प्रणाम. आप हमें मृत्यु से अमृत की ओर ले चलें. बता दें कि शास्त्रों में तीन पीढ़ियों तक के श्राद्ध कर्म की बात कही गई है.
वेद के अनुसार- ये न: पितु: पितरो ये पितामहा…तेभ्य: पितृभ्यो नमसा विधेम।। (अथर्व 18.2.49)
अर्थ है: पितृ, पितामह और प्रपितामहों को हम श्राद्ध से तृप्त करते हैं और नमन कर उनकी पूजा करते हैं.
हिंदू धर्म में पितरों के श्राद्ध को महत्वपूर्ण माना गया है और इसे एक कर्तव्य की तरह निभाकर इसका पालन भी करते हैं. क्योंकि मान्यता है कि, जो लोग पितरों का श्राद्ध नहीं करते उन्हें पितृदोष से पीड़ित होना पड़ता है. ऐसे में यह सवाल उठता है कि, पूर्वजों की मृत्यु तो हर धर्म या पंथों में होती है. फिर जब वो अपने पूर्वजों का पिंडदान नहीं करते तो उनके पूर्वज उन्हें कष्ट क्यों नहीं देते. ऐसे में यह सवाल उठता है कि, क्या केवल हिंदुओं में ही श्राद्ध करना जरूरी होता है.
मन में उठे इस सवाल का जवाब अगर स्पष्ट तरीके से दिया जाए तो वह यह हो सकता है कि, हिंदू धर्म के अतिरिक्त अन्य सभी धर्म या संप्रदाय केवल उपासना के लिए जाने जाते हैं. उनके संप्रदाय में श्राद्ध जैसी कोई विधि नहीं है. वे अपने मृत पूर्वजों का स्मरण करते हैं या उनकी कब्र के पास बैठकर प्रार्थना करते हैं, जोकि एक प्रकार का श्राद्ध ही है.
लेकिन हिंदू धर्म में श्राद्ध और श्राद्धकर्म की व्यवस्था को लेकर गहन विचार किया गया है. इसलिए श्राद्धकर्म करने की जो परंपरा या विधान है वो आपके या हमारे द्वारा बनाए गए नहीं बल्कि यह अति प्राचीन परंपरा है, जिसका उल्लेख वेद-पुराणों में निहित है. ईश्वर चाहे किसी भी धर्म, पंथ या संप्रदाय के क्यों न हों वो किसी को कष्ट नहीं पहुंचाते. लेकिन पूर्वजों को उत्तम गति प्रदान हो, इसके लिए हिंदू धर्म में श्राद्धकर्म की व्यवस्था की गई है.
सभी धर्मों के अपने-अपने कुछ मूल्य, शास्त्र और नियम हैं. फिर चाहे वह हिंदू हो, मुसलमान हो या फिर ईसाई, जो शास्त्रों में बताए नियमों का पालन करते हैं, उन्हें उससे लाभ ही मिलता है और जो शास्त्रों के विरुद्ध जाता है, निश्चित ही उसकी हानि होती है.
वेदों में 5 प्रकार के यज्ञ के बारे में बताया गया है, जो इस प्रकार से हैं- ब्रह्म यज्ञ, देवयज्ञ. पितृयज्ञ, वैश्वदेव यज्ञ और अतिथि यज्ञ. इन्हीं पांच यज्ञों में एक यज्ञ पितृयज्ञ भी है, जिसे पुराण में श्राद्ध यज्ञ या श्राद्ध कर्म कहा जाता है. यह यज्ञ सन्तानोत्पत्ति से संपन्न होता है और इसी यज्ञ से पितृ ऋण चुकता है.
क्या सच में होता है पितृदोष या है महज अंधविश्वास
हिंदू धर्म शास्त्र और हमारे वेद-पुराणों में पितृदोष के बारे में बताया गया है. इसलिए इसे हम अंधविश्वास नहीं मान सकते. इसका स्पष्ट प्रमाण यह है कि, अमेरिका और अन्य देश जोकि भारत से भी अधिक विकसित और विकासशील देश हैं. लेकिन इसके बावजूद पितरों को मोक्ष दिलाने और पितृदोष से मुक्ति के लिए अनेकों विदेशी पितृपक्ष में श्राद्ध के लिए बिहार के गया आते हैं.
श्राद्ध कर्म नहीं करने पर क्या होगा ?
श्राद्ध क्यों जरूरी है, इस पर चर्चा करने के बाद यह जानना भी बेहद जरूरी है कि, श्राद्ध अगर नहीं किया तो इससे क्या होगा. यानी इससे क्या हानि हो सकती है. यह इसलिए भी जानना जरूरी है क्योंकि हिंदू धर्म शास्त्रों में प्रतिवर्ष श्राद्ध करने की बात कही गई है, लेकिन कुछ निरीश्वरवादी इसका विरोध भी करते हैं. इसलिए श्राद्धविधि न करने पर इससे होने वाली संभावित हानि के बारे में भी आपको जरूर जानना चाहिए-
हिन्दू धर्म ने प्रत्येक विषय बहुत ही गहन विचार किया है. शास्त्रों में ऐसे लोगों के लिए प्रावधान या उपाय बताए गए हैं जो आर्थिक रूप से श्राद्ध करने के लिए सक्षम नहीं हैं. लेकिन आधुनिक विज्ञान युग में रहकर लोग धर्म शास्त्रों से जुड़ी बातों पर विश्वास नहीं करते और धीरे-धीरे नास्तिक होते जाते हैं. आइये आपको बताते हैं अगर पितरों का श्राद्ध कर्म न किया जाए तो क्या होता है.
कहा जाता है कि, श्राद्ध न करने पर पितृ दोष लगता है, लेकिन कैसे?
- पूर्वजों की अतृप्ति के कारण होने वाले कष्ट को पितृदोष कहते हैं. पितृदोष दो तरह से निर्मित होता है. पहला इस जन्म के कर्म से और दूसरा पूर्व जन्म में किए गए कर्म से. पूर्व जन्मों के कर्म कुंडली में स्वत: आ जाते हैं. अगर किसी की जन्म कुंडली में गुरु 10वें भाव में है तो इसे पूर्ण पितृदोष माना जाता है. वहीं गुरु के सातवें घर में होने से आंशिक पितृदोष होता है.
- पितृदोष के कारणों में जीते जी दादा-दानी, नाना-नानी और माता-पिता को सताना, श्राद्ध कर्म न करना, पितृधर्म को नहीं मानना, संतान को सताना, पीपल वृक्ष काटना, गाय को सताना या गाय की हत्या करना और धर्म विरोधी होना शामिल हैं.
- पितृदोष होने के कुछ लक्षण बताए गए हैं, जोकि इस प्रकार हैं- विवाह न होना, पति-पत्नी में अनबन. गर्भधारण न होना, गर्भधारण होने पर गर्भपात हो जाना, समय से पूर्व संतान का जन्म होना या फिर विकलांग संतान का जन्म होना, व्यसन, दरिद्रता, रोग आदि सभी पितृदोष के लक्षण हैं.
पितृ दोष के उपाय
- कुंडली में पितृ दोष होने पर घर के दक्षिण दिशा की दीवार पर पितर की फोटो लगाएं और फूल-माला चढ़ाकर नियमित पूजा करें. पितरों के आशीर्वाद से ही पितृदोष से मुक्ति मिलती है.
- स्वर्गीय परिजन की मृत्यु तिथि यानी पुण्यतिथि पर गरीबों में वस्तुओं का दान करें और ब्राह्मण को भोजन कराएं. भोजन में मृतात्मा के पसंद के कुछ व्यंजन जरूर बनाएं.
- पीपल वृक्ष में दोपहर के समय जल, फूल, अक्षत, दूध, गंगाजल, काला तिल पितरों का स्मरण करते हुए चढ़ाएं.
- पितृपक्ष में अपने पितरों की मृत्यु तिथि के अनुसार उनका श्राद्ध कर्म अवश्य करें.
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