Thursday, November 21, 2024

Why Astra Shastra In Hands Of Hindu Gods And Goddesses Know Veda Purana…

शस्त्र और शास्त्र: हमारे देव-देवताओं के हाथों में हमेशा कोई न कोई शस्त्र रहता ही है. देखा जाए तो प्राचीन सभी सभ्यताओं में देवता शस्त्र धारण किए रहते हैं. वो चाहे यहूदी सभ्यता हो या यूनानी या लातिन. कोई न कोई तर्क तो होगा शस्त्र धारण करने के पीछे, उनके सभी तार सनातन धर्म से ही जुड़े हैं. हमारी हिन्दू पौराणिक मान्यता के अनुसार, प्रत्येक देवी–देवता शस्त्र धारक थे, बल्कि उनके प्रिय शस्त्र भी थे. जैसे भगवान शिव का त्रिशूल तो भगवान विष्णु का सुदर्शन और देवराज इंद्र का वज्र था.

कौतुहल इस बात का है कि इन शस्त्रों का उपयोग दैवीय शक्तियों से संपन्न और स्वयं ही संसार के रचयिता को इनकी क्या आवश्यकता पड़ गई. तो पहले हम इसके प्रत्येक घटक को समझ लें. ये अस्त्र अवश्य उन्होंने उठा रखे थे पर उनकी दैवीय शक्तियों के कारण ही ये अस्त्र अधिक प्रभावशाली हुए थे. ये अस्त्र कई कारणों से उठाए रहते थे.

सबसे पहले तो जब वे लौकिक स्वरूप में होते हैं तब स्वयं की असुरों से रक्षा हेतु अस्त्र आवश्यक हैं. तत्कालीन युगीन सत्य यह था कि देव और असुरों में हमेशा संघर्षों की स्थिति बनी रहती थी. इसलिए शस्त्र साथ रखना आवश्यक था. भगवान भक्तों और देवताओं की रक्षा के लिए शस्त्र रखतें हैं. देवता तो बच ही जाते थे पर लौकिक स्वरूप वालों के लिए जीवन मृत्यु का क्रम जारी रहता था.

साथ ही देवताओं को अपने भक्त की सुरक्षा सर्वोपरि होती थी. तब ये अस्त्रों के कारण आम लोगो में एक निश्चिंतता रहती थी कि शस्त्रधारी देवता उसे हर हाल में बचा लेंगे. सबसे अधिक और व्यापक सुरक्षा पर्यावरण की होती थी. असुर अगर उद्दंडता पर आ जाते थे तो सम्पूर्ण जंगल बाग-बगीचे भी नष्ट कर देते थे. तब इन्हीं शस्त्रों से उनका समापन किया जाता था.

विष्णुपुराण तृतीय अंश 2.11/12 के अनुसार पृथ्वी पर पड़े गिरे हुए सूर्य तेज से ही विश्वकर्मा ने भगवान विष्णु भगवान का चक्र, भगवान शंकर का त्रिशूल, कुबेर का विमान और अन्य देवताओं के भी जो जो शस्त्र हैं, उन्हें उससे पुष्ट किया है.

मनुस्मृति 8.348–349 के अनुसार

शस्त्रं द्विजातिभिर्ग्राह्यं धर्मो यत्रोपरुध्यते ।
द्विजातीनां च वर्णानां विप्लवे कालकारिते ॥ 348 ॥

आत्मनश्च परित्राणे दक्षिणानां च सङ्गरे ।
स्त्रीविप्राभ्युपपत्तौ च घ्नन् धर्मेण न दुष्यति ॥ 349 ॥

अर्थात: धर्म की रक्षा हेतु अथवा देश की रक्षा हेतु शस्त्र उठाना अनिवार्य हैं.

भगवान राम ने तो विजय दशमी के दिन शस्त्र की पूजा भी की थी. भविष्य पुराण उत्तर पर्व अध्याय 138 के अनुसार जिस व्यक्ति को विजय की आस है वह विजय दशमी को अपने शस्त्र की पूजा करे. आज के युग में शास्त्र और शस्त्र दोनों का सामंजस्य जरूरी हैं. सिर्फ शस्त्र को आधार बनाएंगे तो आदमी पशु हिंसक हो जाता हैं और सिर्फ शास्त्र को आधार बनाएंगे तो आदमी कमजोर प्रतीत होता है (संत और ऋषि मुनियों के अलावा). भगवान राम ने दोनों का सामंजस्य रखा था, उन्होंने शास्त्र के अनुसार नवरात्र का व्रत पालन किया और शस्त्र से शत्रुओं का विनाश किया.

भगवान शिव का त्रिशूल और पिनाक, भगवान नारायण का सुदर्शन चक्र, शारंग धनुष और गदा, ब्रह्मास्त्र, पशुपतास्त्र, और इंद्र का वज्र सबसे घातक अस्त्र मानें गए हैं. भगवान नारायण ने अपने अवतारों में प्रमुख्तः धनुष–बाण का ही प्रयोग किया. चाहे वो परशुराम अवतार, राम अवतार या कृष्ण अवतार हों. हमारे यहां चार वेद के अलावा धनुर्वेद भी हैं. धनुर्वेद के अनुसार सबसे पहला धनुष–बाण का ज्ञान भगवान महादेव ने परशुराम जी को सिखाया था.

महाभारत के अनुसार भगवान शिव के पास पिनाक धनुष और भगवान विष्णु के पास सारंग धनुष रहता है और इन दिनों धनुष की रचना ब्रह्मा जी ने की थी और भेंट किया था भगवान शिव और भगवान नारायण को, महाभारत दान धर्म पर्व अनुसार ब्रह्मा जी सारंग और पिनाक धनुष, एक बांस की लकड़ी से बनाया था. शुक्ल यजुर्वेद की माध्यन्दिन शाखा 3.61 में भी पिनाक धनुष का वर्णन है. मंत्र:–

एतत्ते रुद्राऽवसन्तेन परो मूजवतोऽतहि । अवततधन्वा पिनाकावसः कृत्तिवासऽअहिसन्नः शिवोऽतहि ॥ 61॥

अन्वय: (हे) रुद्र! एतत् ते अवसम् (भोज्यं) तेन अवततध न्वा पिनाकावसः मूजवतः पर अतीहि । कृतिवासाः न अहिंसन् शिवः अतीहि।

व्याख्या: हे रुद्रदेव यह आपका पाथेय है. (मार्ग में किया जाने वाला भोजन) इसके साथ आप उतरी हुई डोरी युक्त धनुषवाले अर्थात् विश्रान्तिमुद्रा में होकर पिनाक (धनुष) को वस्त्र से वेष्टित (ढककर) करते हुए मूज्जवान्पर्वत पर चले जाइए. (हे रुद्रदेव) (गज) चर्माम्बर धारण करने वाले, हमारी इच्छापूर्ण करते हुए पूजादि से सन्तुष्ट होकर पर्वत का अतिक्रमण करके अपने निवास स्थान को जाइए. कल्प भेद अनुसार ऐसा ही वर्णन है. महाभारत में जहां लिखा है कि, असुरों को समाप्त करने के लिए भगवान शिव ने ही भगवान विष्णु को ’सुदर्शन चक्र’ भेंट किया था.

महाभारत अनुशासन पर्व 14.77–79 के अनुसार, पूर्वकाल में जलके भीतर रहने वाले गर्वीले दैत्य को मारकर भगवान महादेव ने जो चक्र प्रदान किया था. उस अग्नि के समान तेजस्वी शस्त्र को स्वयं भगवान शिव ने ही उत्पन्न किया और भगवान विष्णु जी को भेंट किया. वह अस्त्र अद्भुत तेज से युक्त एवं दुर्धर्ष है. उस अस्त्र को पिनाकपाणि भगवान शिव को छोड़कर दूसरा कोई उसको देख भी नहीं सकता था. उस समय भगवान शिव ने कहा, “यह अस्त्र सुदर्शन (देखने में सुगम) हो जाय. तभी से संसार में उसका ’सुदर्शन’ नाम प्रचलित हो गया. महाभारत में अर्जुन ने भगवान शिव से पाशुपतास्त्र आशीर्वाद स्वरुप ग्रहण किया लेकिन इस अस्त्र का उपयोग अर्जुन ने कुरुक्षेत्र युद्ध में उपयोग नहीं किया, चौकिए मत ये सही हैं, द्रोण पर्व 146.120–121 अनुसार:–

एतच्छ्रुत्वा तु वचनं सृक्किणी परिसंलिहन्। इन्द्राशनिसमस्पर्श दिव्यमन्त्राभिमन्त्रितम्।।120॥
सर्वभारसहं शश्वद् गन्धमाल्याचितं शरम्। विससर्जार्जुनस्तूर्ण सैन्धवस्य वधे धृतम्॥121॥

अर्थ: श्रीकृष्णका यह वचन सुनकर अर्जुन ने सिंधुराज के वध के लिये धनुष पर हुए उस बाण को तुरंत ही छोड़ दिया, जिसका स्पर्श इन्द्र के वज्र के समान कठोर था, जिसे दिव्य मन्त्रों से अभिमन्त्रित किया था, जो सारे भारों को सहने में समर्थ था और जिसकी प्रतिदिन चन्दन और पुष्पमाला द्वारा पूजा की जाती थी (संभवतः वज्रास्त्र होना चाहिए).

हनुमान जी की बात करें तो उन्होंने शस्त्र का प्रयोग बहुत कम किया है. क्योंकि वे इतने बलशाली थे की शस्त्र का उपयोग की बहुत कम बार आवश्यकता पड़ी. असुरों को कभी शीला से मारते तो कभी अपने हाथों से, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि हनुमान जी गदा रखते ही नहीं थे. कई स्वयं स्वघोषित रामायण ज्ञानी गदा को नकारते हैं क्योंकि वह वाल्मीकि रामायण में वर्णित नहीं है. यह एक नास्तिकता और अज्ञानता की निशानी है जो हनुमान जी और राम जी को सिर्फ वाल्मीकि रामायण तक ही समेटना चाहते है. शास्त्र अनुसार “चरितं रघुनाथस्य शतकोटिप्रविस्तरम्।”

अर्थ:– राम जी का चरित्र सैकड़ों, करोड़ों प्रकार का है. कल्पभेद से अनेक कथाएं उपलब्ध हैं. प्रत्येक कल्प (ब्रह्माजी के अनुसार एक दिन और मनुष्यों के अनुसार चार अरब, बत्तीस करोड़ वर्ष) में एक बार भगवान राम का अवतार होता है इसलिये वाल्मीकि रामायण के अलावा रामायण का वर्णन कई पुराण, तंत्र, स्मृति और अन्य रामायणों में वर्णित हैं. चलिए शुरू करते हैं तंत्र से–

1) खड्गं त्रिशूलं खट्वाङ्गं पाशमङ्कुशपर्वतम् ॥ एतान्यायुधजालानि धारयन्तं यजामहे ॥ [श्रीविद्यार्णवतन्त्र (हनुमत्प्रकरण) 33।8-9]

अर्थ:– खड्ग, त्रिशूल, खट्वाङ्ग, पाश, अङ्कुश, पर्वत, स्तम्भ, मुष्टि, गदा और वृक्ष (की डाली) ही उनके दस आयुधों के रूप में परिगणित हैं.

2) ‘वामहस्तगदायुक्तम्’

(मन्त्रमहार्णव, पूर्वखण्ड, नवम तरंग, पृष्ठ 185):- श्रीलक्ष्मण और रावण के युद्ध में लक्ष्मण को पराजित होते देख हनुमानजी ने गदा का प्रयोग किया था. वे हाथ में गदा लेकर दौड़ पड़े थे.

3) श्रीरामभक्ताय अक्षविध्वंसनाय नमो नमः च।
नमो नमः रक्षः पुरीदाहकारिणे वज्रधारिणे।
(स्कंद पुराण, ब्रह्मखण्ड, धर्मारण्यमा० 37।3)

अर्थ: – हनुमान जी को यहां ’वज्रधारिणे’ (वज्र/बज्र धारण करने वाला ) बताया है.

4) पाराशर संहिता (षष्टितमः पटन-1 अवतार कथनम्-पहला श्लोक)

खड्गं खट्वांगशैल द्रुम परशु गदा पुस्तकं शंख चक्रे पाशं पद्म’ त्रिशूलं हल मुसल घटा न्टक शक्त्यक्षमालाः दावा कुंत च चलित कुशवरा पट्टिसं चापबाणान् खेटं मुष्टि फलं वा डमरु मभिभजे बिभ्रतं वायुसूनुः॥

अर्थ:– हनुमान जी गदा के अलावा खड्ग भी धारण करते हैं.

5) हनुमान चालीसा में भी वर्णन है “हाथ बज्र और ध्वजा बिराजे”

यहां कई रामायण भाष्यकारों ने वज्र को गदा बताया है अगर अवधी भाषा की दृष्टि से देखें तो.

भगवान ब्रह्मा को शस्त्रों की दृष्टि से निष्क्रिय बताया क्योंकि उनका कार्य रचना करना हैं, पालन और संहार करने के लिए शस्त्र अनिवार्य है जोकि महादेव और नारायण के पास हमेशा उपलब्ध रहता है.

लेकिन कुछ जगह ब्रह्मा जी युद्ध में सक्रिय थे, जैसे कि शिव पुराण विद्येश्वरसंहिता 6.13 (मुमोचाथ विधिः क्रुद्धो विष्णोरुरसि दुःसहान् ॥ बाणाननलसङ्काशानस्त्रांश्च बहुशस्तदा।) में उन्होंने श्रीजनार्दन पर अग्नि समान अस्त्र से युद्ध किया.

खड़ग की रचना भगवान ब्रह्मा ने ही की थी. अग्नि पुराण अध्याय कमांक 245 अनुसार, एक समय भगवान ब्रह्माने सुमेरु पर्वतके शिखरपर आकाशगङ्गाके किनारे एक यज्ञ किया था. उन्होंने उस यज्ञ में उपस्थित हुए लौह दैत्य को देखा. उसे देखकर वे इस चिन्ता में डूब गए कि ‘यह मेरे यज्ञ में विघ्न रूप न हो जाए. उनके चिन्तन करते ही अग्रि से एक महाबलवान पुरुष प्रकट हुआ और उसने भगवान ब्रह्मा की वन्दना की. तदनन्तर देवताओं ने प्रसन्न होकर उसका अभिनन्दन किया. इस अभिनन्दन के कारण ही वह ‘नन्दक’ कहलाया और खड्गरूप हो गया. उसी अध्याय में आगे खड्ग की विशेषता बताई है, खटी खट्टर देश में निर्मित खड्ग दर्शनीय माने गये हैं. ऋषीक देश खड्ग शरीर को चीर डालने वाले तथा शूर्पारकदेशीय खड्ग अत्यन्त दृढ़ होते हैं. अंगदेशीय खड्ग तीक्ष्ण कहे जाते हैं. पचास अंगदेशीय खड्ग श्रेष्ठ माना गया है. इससे परिमाण का मध्यम होता है. इससे हीन परिमाण का खड्ग धारण न करें.

अग्नि पुराण 245.3–13 अनुसार, धनुष के निर्माण के लिए लौह, शृङ्ग या काष्ठ-इन तीन द्रव्यों का प्रयोग करें. प्रत्यंचा के लिये तीन वस्तु उपयुक्त हैं- वंश, भङ्ग और चर्म दारु निर्मित श्रेष्ठ धनुष का प्रमाण चार हाथ माना गया है. उसी में क्रमशः एक-एक हाथ कम मध्यम और अधम होता है. मुष्टि ग्राह के निमित्त धनुष के मध्य भाग में द्रव्य निर्मित कराए, धनुष की कोटि कामिनी की भ्रूलता के समान आकार वाली और अत्यन्त संयत बनवानी चाहिए. लौह या शृङ्गे के धनुष पृथक् पृथक् एक ही द्रव्य के या मिश्रित भी बनवाए जा सकते हैं. शृङ्ग निर्मित धनुष को अत्यन्त उपयुक्त तथा सुवर्ण- बिन्दुओं से अलंकृत करें. कुटिल, स्फुटित या छिद्रयुक्त धनुष निन्दित होता है. धातुओं में सुवर्ण, रजत, ताम्र एवं कृष्ण लौह के धनुष का निर्माण में प्रयोग करें.

शार्ङ्ग धनुष में महिष, शरभ एवं रोहिण मृग के शृङ्गे से निर्मित चाप शुभ माना गया है. चन्दन, वेतस, साल, धव तथा अर्जुन वृक्ष के काष्ठ से बना हुआ दारुमय शरासन उत्तम होता है. इनमें भी शरद् ऋतु में काटकर लिए गए पके बांसों से निर्मित धनुष सर्वोत्तम माना जाता है. धनुष और खड्ग की भी त्रैलोक्यमोहन- मन्त्रों से पूजा करे. लोहे, बांस, सरकंडे अथवा उससे भिन्न किसी और वस्तु के बने हुए बाण सीधे, स्वर्णाभ, स्नायुश्लिष्ट, सुवर्णपुङ्खभूषित, तैल धौत, सुनहले एवं उत्तम पङ्गयुक्त होने चाहिए. राजा यात्रा एवं अभिषेक में धनुष-बाण आदि अस्त्रों तथा पताका, अस्त्रसंग्रह एवं दैवज्ञ का भी पूजन करें.

हरिवंश पुराण विष्णु पर्व 35.60–61 अनुसार, भगवान कृष्ण और जरासंध युद्ध के समय भगवान कृष्ण और बलराम के लिए स्वयं आकाश मार्ग से शस्त्र प्रकट हो गए:–

हलं संवर्तकं नाम सौनन्दं मुसलं तथा। धनुषशं प्रवरं शाई गदा कौमोदकी तथा॥60॥
चत्वार्येतानि तेजांसि विष्णुप्रहरणानि च। ताभ्यां समवतीर्णानि यादवाभ्यां महामृधे ॥61॥

अर्थात:– संवर्तक नामक हल, सौनन्द नामक मूसल, धनुप में श्रेष्ठ शार्ङ्ग तथा कौमोद की गदा-भगवान् विष्णु के ये चार तेजस्वी आयुध उन दोनों भाइयों के लिए आए. वाल्मीकि रामायण बालकांड 27.26 अनुसार ऋषि विश्वामित्र ने, जिन अस्त्रों का पूर्णरूप से संग्रह करना देवताओं के लिए भी दुर्लभ होता था. उन अस्त्रों का विश्वामित्र जी ने श्री रामचंद्रजी को समर्पित कर दिया.

कल्याण एक प्रतिष्ठित प्रकाशन के अनुसार पुराने समय में युद्ध के लिए प्रमुख 25 अस्त्र उपयोग होते थे. उनके नाम हैं:–

  • शक्ति- यह लंबाई में गजभर होती है, उसकी मूठ बड़ी होती है, उसका मुंह सिंह के समान होता है. और उसमें बड़ी तेज जीभ और पंजे होते हैं. उसका रंग नीला होता है और उसमें छोटी-छोटी घंटियां लगी रहती है. यह बड़ी भारी होती है और दोनों हाथों से फेंकी जाती है.
  • तोमर- यह लोहे का बना होता है. यह बाण के रूप में होता है और इसमें लोहे का मुंह बना होता है. सांप की तरह इसका रूप होता है. इसका धड़ लकड़ी का बना होता है. नीचे की ओर पंख लगाए जाते हैं, जिससे वह सरलता से उड़ सके. यह प्रायः डेढ़ गज लंबा होता है. इसका रंग लाल होता है.
  • चन्द्रहास- यह टेढ़ी तलवार के समान वक्र कृपाण हैं.
  • पाश– ये दो प्रकार के होते हैं, वरुणपाश और साधारण पाश ये इस्पात के महीन तारों को बटकर बनाया होता है. इनका एक सिर त्रिकोणवत् होता है. नीचे जस्ते की गोलियां लगी होती हैं. कहीं-कहीं इसका दूसरा वर्णन भी है. वहां लिखा है कि यह पांच गज का होता है और सन, रूई, घास या चमड़े के तारसे बनता है. इन तारों को बटकर इसे बनाते हैं.
  • ऋष्टि- यह सर्वसाधारण शस्त्र है, पर बहुत प्राचीन है. कोई-कोई उसे तलवार का भी रूप बताते हैं.
  • गदा- इसका हाथ पतला और नीचे का हिस्सा वजनदार होता है. इसकी लंबाई जमीन से छाती तक होती है. इसका वजन बीस मन तक होता है. एक-एक हाथ से दो गदाएं उठाई जाती थीं.
  • मुद्गर- इसे साधारणतया एक हाथ से उठाते हैं. कहीं यह बताया है कि यह हथौड़े के समान भी होता है.
  • चक्र – यह दूर से फेंका जाता है.
  • वज्र– कुलिश तथा अशनि: – इसके ऊपरके तीन भाग तिरछे-टेढ़े बने होते हैं. बीच का हिस्सा पतला होता है. पर हाथ बड़ा वजनदार होता है.
  • त्रिशूल- इसके तीन सिर होते हैं और इसके दो रूप होते हैं.
  • शूल– इसका एक सिर नुकीला और तेज होता. शरीर में भेद करते ही प्राण उड़ जाते हैं.
  • असि- इसे तलवार कहते हैं. इस शस्त्र का यहा किसी रूप में पिछले काल तक उपयोग होता रहा. पर विमान, बम और तोपों कs आगे उसका भी आज उपयोग नहीं रहा. अब हम इस चमकने वाले हथियार को भी भूल गए. लकड़ी भी हमारे पास नहीं, तब तलवार कहां से हो.
  • खड्ग- यह बलिदान का शस्त्र है. दुर्गाचण्डी के सामने विराजमान रहता है.
  • फरसा- यह कुल्हाड़ा है पर यह युद्ध का आयुध है. इसके दो रूप होते हैं.
  • मुशल– यह गदा के समान होता है, जो दूर से फेंका जाता है.
  • धनुष– इसका उपयोग बाण चलाने के लिये होता है.
  • बाण- इसके सायक, शर और तीर आदि भिन्न-भिन्न नाम हैं ये बाण भिन्न-भिन्न प्रकार के होते है. हमने ऊपर कई बाणों का वर्णन किया है. उनके गुण और कर्म भिन्न-भिन्न हैं.
  • परिघ–  एक में लोहे की मूठ है. दूसरे रूप में  यह लोहे की छड़ी भी होती है और तीसरे रूप के सिरे पर वजनदार मुंह बना होता है.
  • भिन्दिपाल- यह लोहे का बना होता है. इसे हाथ से फेंकते हैं. इसके भीतर से भी बाण फेंकते हैं.
  • नाराच- यह एक प्रकार का बाण है.
  • परशु- यह छुरे के समान होता है. भगवान परशुराम के पास प्रायः रहता था. इसके नीचे एक चौकोर मुंह लगा होता है. यह दो गज लंबा होता है.
  • कुण्टा– इसका ऊपरी हिस्सा हलके समान होता है. इसके बीच की लंबाई पांच गज की होती है.
  • शंकु बरछी- यह भाला है.

और भी अनगिनत हथियार थे जो पुराने समय उपयोग में लाए जाते थे. ये सभी अस्त्र शस्त्र आज के परमाणु हथियार से भी ज्यादा खतरनाक और भयावह हुआ करते थे.और भी अनगिनत हथियार थे जो पुराने समय उपयोग में लाए जाते थे. ये सभी अस्त्र शस्त्र आज के परमाणु हथियार से भी ज्यादा खतरनाक और भयावह हुआ करते थे.

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[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]

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